दुनिया क्यों डार्विन के पीछे पड़ी है ?
कुछ ही वर्ष पहले की बात है इटली की सरकार में गैलीलियो की कब्र से माफी मांग कर प्रायश्चित कर लिया है ।यह भी कम कमाल नहीं है कि डार्विन को वेस्टमिनीस्टर ऐबी में दफनाया गया था जहां केवल शाही घराने या अति -अति विशिष्ट व्यक्तियों को ही सम्मान मिलता रहा है ।यदि सम्मान की दृष्टि से देखा जाए तो यह बहुत ऊंचा सम्मान है ।पिछले लगभग 500 वर्षों में विज्ञान ने बहुत सी बहसों को जन्म दिया है ।इन सब में डार्विनवाद की बहस ही एक ऐसी बहस है जो आज तक पीछा नहीं छोड़ रही ।डार्विन से आखिर क्यों घबरा रही है दुनिया? डार्विन एक बहुत ही शर्मीले, शांत, विनम्र, कम बोलने वाले और रिजर्व रहने वाले व्यक्ति थे। कैसे उन्होंने पूरी दुनिया को हिला दिया? डार्विन के समय में ही इस मत पर कैसी -कैसी चर्चाएं चली? इन सबमे
बड़ी बात तो यह है कि स्वयं उस समय डार्विन ने अपने मत पर चली चर्चाओं में बहुत कम भाग लिया ।विज्ञान की दुनिया में उनके समर्थकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज पर इतना ही कहा था कि यह एक मत या सिद्धांत न होकर एक बहस है।
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समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में यह बहस कैसे चली? विकासवाद का विचार डार्विन से पहले ही आ चुका था लेकिन अब इनकी यह पुस्तक एक पूर्ण विकसित सिद्धांत थी। सभी जानते हैं कि डार्विन ने इसे छपवाने में कोई जल्दी नहीं की थी। वे अपने मत के पक्ष में अधिकाधिक सबूत इकट्ठा कर रहे थे। मूल बात यह है कि इस पुस्तक में विश्वास के मत के विरोध में कहा कुछ नहीं लेकिन संकट बहुत बड़ा खड़ा कर दिया ।जॉन हेडली ब्रुक का यह कहना था कि इस पुस्तक के छपने के बाद इंग्लैंड वासियों के लिए धार्मिक विश्वास रखना बहुत महंगा पड़ता दिखाई दे रहा था। उनके धार्मिक मत ज्ञान की जिस चारदीवारी में शोभायमान थे वे अब असुरक्षित महसूस करने लग गए थे ।जिस पर आज तक प्रश्न नहीं थे अब वे शक के दायरे में आ गए ।उस समय की लगभग 100 जानी-मानी पत्रिकाओं के माध्यम से जानने को मिला कि डार्विन के इस मत ने उत्पत्ति की अवधारणा को कटघरे में खड़ा कर दिया है। इससे पूर्व भी विज्ञान के विकास ने समकालीन स्थापित मान्यताओं को चुनौतियां दी थी ।इन मान्यताओं और विज्ञान के बीच एक खाई तो बन ही गई थी। बहुत से बीच-बचाव करने वालों ने इसे भरने के प्रयास भी किए थे। लेकिन इस मत ने इस खाई को न केवल और चौड़ा कर दिया अपितु इस अलगाव को मरम्मत करने लायक भी नहीं छोड़ा ।
धर्मशास्त्र डार्विन मत से इतना ज्यादा खफा क्यों हुआ ?धर्मशास्त्र एक ऐसी व्यवस्था की बात करते हैं जो शांति प्रिय है, न्याय प्रिय है इसमें एक प्रकार का सामंजस्य है । लेकिन डार्विन मत में सर्वत्र संघर्ष है, नित बदलाव है, एक आगे बढ़ता हुआ विकास है। अर्थात स्थायित्व या ठहरी हुई व्यवस्था कहीं नहीं है। धर्मशास्त्र ने बखूबी डार्विन के इस छिपे रहस्य को समझ लिया था। लेकिन धर्मशास्त्र तो अपनी सत्ता व्यवस्था में एक इंच भी बदलाव स्वीकार नहीं करता ।अब डार्विन तो अपने सिद्धांत को प्रकृति का चयन अर्थात प्रकृति का नियम कह रहे हैं। इस बात से तो धर्मशास्त्र की व्यवस्था भी स्थिर नहीं रहनी चाहिए ।19वीं सदी के अंत की बहस इस धर्म सत्ता को नष्ट तो नहीं कर पाई हां, इतना जरूर हुआ कि विज्ञान संस्कृति ने इसे सहज खारिज जरूर कर दिया ।एक पत्रिका ने तो यह कहकर मामला शांत करने की कोशिश भी की कि डार्विन उत्पत्तिकर्ता पर तो कोई सवाल ही नहीं कर रहा। यह तो यही कह रहा है कि पृथ्वी पर जीवो का विकास कैसे हुआ है। यह सही है कि डार्विन के सिद्धांत में कहीं पर भी किसी सुप्रीम उत्पत्तिकर्ता का जिक्र नहीं है। इस डार्विन मत में जो विशेषता है वह यह है कि विभिन्नताओं के रहते विकसित होते समय बहुत प्रकार के संयोग संभावित हैं ।डार्विन इसी को अपना आधार बनाकर अपना सिद्धांत दे रहा है ।वह किसी पूर्व निर्धारित बने बनाए निश्चित क्रम को नहीं मानता है ।प्रकृति का यह बदलाव जब सामाजिक व्यवस्था की ओर सरकता दिखता है तो यथास्थिति चाहने वाले सत्ता धारियों को भी अपनी स्थिति के सरकने का डर सताने लगता है। यही कारण है कि सत्ताएं डार्विन से डरती हैं।