ज़िन्दगी सदा ही बहार...


मैं और मेरे अल्फाज़ - डॉ उषा साहनी उर्फ अंजलि


ये क्या हुआ कि सब शांत हो चला,
भागते-दौड़ते से हम रुक गए, थम गए।
वक़्त जो पाया है, सोच लें, विचार लें ,
ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत एक नयी बहार दें।


एक द्वंद सा रहा, इंसान का इंसान से,
ख़ौफ में, कैद में पक्षियों का चमन रहा,
आओ इन दूरियों में भी सब मिलकर साथ चलें,
निराश हर पक्षी को पिंजरों से रिहा आज हम करें।


सैलाब सा उमड़ता रहा ऊँची महत्वाकांक्षाओं का,
चढ़ा रहा सदा कोई इसके सिर तो कोई उसके सिर,
आओ चलो मिलकर बुनें नयी उम्मीदों-आशाओं को,
हर नज़र में नयी इक चमक हो, हर दिल में नयी इक आस हो।


बवंडर जो मचाया प्रकृति में इंसानी छेड़खानियों ने,
ऐशो-आराम की चाहतों ने लूटे जो ख़ूबसूरत दृश्यों के दामन,
आओ चलें थोड़ा सा चख लें आध्यात्म का अमृत,
अंतर्मन को होने दें निर्मल, स्वच्छ, पवित्र और पावन भी।


कुछ तो हुआ ही है कि सब शांत होने में है,
ज़िन्दगी की चहल-पहल नाज़ुक कगार पर है,
जैसे भी मिल पाया है, वक़्त तो पाया ही है,
आओ, हर छूटे मोती को ख़ूबसूरत धागे में पिरोते हैं,
ज़िन्दगी को जिंदादिली के जज्बे से आबाद हम कर लेते हैं। 
आबाद हम कर लेते हैं।


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