शब्द और लहज़ा का विज्ञान

शब्दो को कहना, 
और कहने का लहजा, 
क्या एक दूसरे के पूरक नही है? 
 
क्या जैसा सोचा जाता है, 
वैसा कहा भी जाता है? 
अगर कहा भी जाता है, 
तो क्या, 
उचित शब्द और लहजे के साथ? 


बात कहनी ही होती है, 
   तो अक्सर कही क्यों नही जाती? 
अगर कही भी जाती है, 
   तो समझी क्यों नही जाती? 
  
'शब्द' और 'लहज़ा', 
 इन दोनों के जाल न बुन पाने से,
क्या रिश्तो के बुने हुए जाल, 
नही उधड़ रहें है? 


आज इक ऐसी खाई, 
इन दोनों के साथ न होने से,
रिश्तों मे आई है, 
जिसे शायद 'प्यार' नामक 'पुल', 
भी पार नही करा सकता। 
आखिर क्यों?