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*_खिचड़ी का अविष्कार।_*
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*_कई वर्षों पहले एक बार,_*
*_दिन का नाम था रविवार_*
*_पति-पत्नी की एक जोड़ी थी_*
*_नोंकझोंक जिनमें थोड़ी थी_*
*_अधिक था उनमें प्यार,_*
*_मीठी बातों का अम्बार_*
*_सुबह पतिदेव ने ली अंगड़ाई,_*
*_पत्नी ने बढ़िया चाय पिलाई_*
*_फिर नहाने को पानी किया गर्म,_*
*_निभाया अच्छी पत्नी का धर्म_*
*_पति जब नहाकर निकल आए,_*
*_पत्नी ने बढ़िया पकौड़े खिलाए।_*
*_फिर पतिदेव ने समाचार-पत्र पकड़ा,_*
*_दोनों हाथों में उसे कसकर जकड़ा।_*
*_अगले तीन घंटे तक न खिसके,_*
*_रहे वो समाचार-पत्र से चिपके।_*
*_पत्नी निपटाती रही घर के काम,_*
*_मिला न एक पल भी आराम।_*
*_एक पल को जो कुर्सी पर टिकी,_*
*_पति ने तुरंत फरमाइश पटकी।_*
*_बोले अब नींद आ रही है ढेर सारी,_*
*_प्रियतमा बना दो पूड़ी और तरकारी।_*
*_पत्नी बोली मैं हूँ आपकी आज्ञाकारी,_*
*_लेकिन फ्रिज में नहीं है तरकारी।_*
*_पति बोले दोपहर तक कोहरा छाया है,_*
*_सूरज को भी बादलों ने छिपाया है।_*
*_ऐसे में तरकारी लेने तो न जाऊँगा,_*
*_छोड़ो पूड़ी, दाल-चावल ही खाऊँगा।_*
*_पत्नी बोली थोड़ी देर देखिए टीवी,_*
*_अभी खाना बनाकर लाती बीवी।_*
*_पति तुरंत ही गए कमरे के अंदर,_*
*_पत्नी ने रसोई में खोले कनस्तर।_*
*_दाल-चावल उसमें रखे थे पर्याप्त,_*
*_पर सिलेंडर होने वाला था समाप्त।_*
*_बन सकते थे चावल या फिर दाल,_*
*_क्या बनाएँ क्या न का था सवाल।_*
*_कोहरा, बादल और था थरथर जाड़ा,_*
*_सूरज निकले गुजर चुका था पखवाड़ा।_*
*_कैसे कहती पत्नी कि सिलेंडर लाना है_*
*_वरना दाल-चावल को भूल जाना है।_*
*_इतनी ठंड में पति को कैसे भेजूँ बाजार,_*
*_काँप-काँप उनका हो जाएगा बँटाधार।_*
*_इस असमंजस से पाने के लिए मुक्ति,_*
*_धर्मपत्नी ने लगायी एक सुंदर युक्ति।_*
*_कच्ची दाल में कच्चे चावल मिलाए,_*
*_धोकर उसने तुरंत कुकर में चढ़ाए।_*
*_कुछ देर में एक लम्बी सी आई सीटी,_*
*_पति के पेट में चूहे करने लगे पीटी।_*
*_पत्नी ने मेज पर खिचड़ी लगायी,_*
*_साथ में अचार और दही भी लायी।_*
*_नया व्यंजन देखकर दिमाग ठनका,_*
*_और पति के मुख से स्वर खनका।_*
*_बोले न तो है चावल न ही है दाल,_*
*_दोनों को मिलाजुला ये क्या है बवाल।_*
*_पत्नी बोली सिलेंडर हो गया खाली,_*
*_इसलिए मैंने चावल-दाल मिला डाली।_*
*_एक बार ही कुकर था चढ़ सकता,_*
*_दाल-चावल में से कोई एक पकता।_*
*_इतनी ठंड में आप जो बाहर जाते,_*
*_अगले दो घण्टे तक कँपकँपाते।_*
*_इसलिए मैंने इन दोनों को मिलाया,_*
*_आपके लिए ये नया व्यंजन बनाया।_*
*_खाने से पहले धारणा मत बनाइए,_*
*_तनिक एक चम्मच तो चबाइए।_*
*_पेट में चूहे घमासान मचा रहे थे,_*
*_चावल देख पति ललचा रहे थे।_*
*_नुक्ताचीनी और नखरे छोड़कर,_*
*_खाया एक कौर चम्मच पकड़कर।_*
*_नये व्यंजन का नया स्वाद आया,_*
*_पत्नी का नवाचार बहुत भाया।_*
*_बोले अद्भुत संगम तुमने बनाया,_*
*_और मुझे ठण्ड से भी है बचाया।_*
*_तृप्त हूँ मैं ये नया व्यंजन खाकर,_*
*_और धन्य हूँ तुम-सी पत्नी पाकर।_*
*_पर एक बात तो बताओ प्रियतमा,_*
*_क्या नाम है इसका, क्या दूँ उपमा।_*
*_पत्नी बोली पहली बार इसे बनाया,_*
*_नाम इसका अभी कहाँ है रख पाया।_*
*_खिंच रही थी गैस दुविधा थी बड़ी,_*
*_इसलिए इसको बुलाएँगे खिचड़ी।_*
*_मित्रों इनके सामने जब समस्या हुई खड़ी,_*
*_न तो पति चिल्लाया न ही पत्नी लड़ी।_*
*_आपके समक्ष भी आए जब ऐसी घड़ी,_*
*_प्रेम से पकाइएगा कोई नयी खिचड़ी।_*
*_तो इस पूरी घटना का जो निकला सार,_*
*_उसे हम कह सकते हैं कुछ इस प्रकार।_*
*_कि पति-पत्नी में जब हो असीम प्यार,_*
*_तो हो जाता है खिचड़ी का अविष्कार..._*
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