विज्ञान अपने आप में अलग पहचान रखता है।

मैं नहीं तो क्या हुआ,मेरा ही कोई है।बीज कल उगना ही है,जिसकी बेल बोई है।।
सत्य निष्ठा समर्पण , तो जाने कहां गये, आज दुनियां समूची,कहीं दुबकी  सोई है।
मान लो ऐसा नहीं,तो वैसा क्यों हुआ,देखकर जिसको कि क्यूरी सुस्त सोई है।।
निकले जरूर  चन्द हैं,जगाने के वास्ते। बिंदास बोल बोल रहा,पर कोई कोई है।।
हम खुश हैं कि हमने, हैआगाज  कर दिया , यानी कि पकने वास्ते, अभी दाल भिगोई है।।
कागज़ों के जहाज कभी,न उड़ते हैं न तैरते ।यह तो महानुभावों की,बस किस्सा गोई है।।जो खुद बनाते खाते ,व उनकी ही रसोई है।।यह भेज रहा बरवक्त,   हूं मुआयने के लिए। इतना ही मेरा मतलब ,इतनी साफगोई है।


इन बच्चों को भी जीने का,वैसा ही अधिकार मिले,
जैसा मिलने से दूजों के, दिखें चेहरे आज खिले।।
मात पिता समझें बढ़ी हुई, अपनी जिम्मेदारी को,किन्नर बच्चे के साथ खड़े,सब आघातों को सह लें


सारा दोष ऊतकों दर्शाया,श्रवित हार्मोन्स का है,
कौन कहां से कैसे निकले,निर्माणी संस्था का है।।
क्यों वे दृव्य नहीं निकलते,मतभेद वैज्ञानिकों में,
मगर संवारने का दायित्व, सामाजिक संस्था का है।।


बच्चों के जननांगों से तो,लड़का या लड़की होते,
अज्ञात परिस्थितिवश लेकिन,वे एक तरफ झुके होते।।
आओर बड़े होने पर इनमें,स्पष्टता की दुविधा कारण,
नर मादा के मघ्य कहीं भी, कुछ भी सब कहते होते।।


पहले तो समाज जागृत था,आज मगर विकृत दिखता,
क ई प्रथाओं को देखें तो,अब ना अनुशीलन दिखता।।
वर्ना बड़े आदर से किन्नर, बच्चों को देते आशीष,
मगर लेन देन के रिवाज से,बर्बाद सभी हुआ दिखता।।
डॉ सुभाष चन्द्र गुरूदेव लखनऊ